किसानों द्वारा अक्सर पूछे जाने वाले सवाल
Ø भैंस को तीन-चार बार झोटे से मिलवाया है परन्तु हर 20-22 दिन बाद फिर गर्मी के लक्षण दिखाती है। कोर्इ उपाय बताएं?
उ0 भैंस में गर्मी के लक्षण बहुत हल्के होते हैं। उनकी तुलना गाय से नहीं करनी चाहिए। लक्षण यदि ठीक प्रकार से पहचान में नहीं आ रहे हैं तो डाक्टर से जांच करा लें। इसके अलावा यदि डाक्टर उपलब्ध नहीं है तो आप इस गर्मी को छोड़ भी सकते हैं। लेकिन इस गर्मी की तारीख कहीं पर लिख कर रख लें । 20-22 दिन बाद यदि ये लक्षण फिर आते हैं तो यह समझें कि भैंस निश्चित रूप से गर्मी में है। भैंस को अवश्य गाभिन करायें।
उ0 कुछ भैंसों में शांत मद के कारण गर्मी के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखार्इ नहीं देते हैं। परन्तु गर्मी में आने से 3-4 दिन पहले तक उसके थन दूध से भरे दिखार्इ देते हैं। इसे डोका कहते हैं। आमतौर पर डोका इस बात का सूचक माना जाता है कि भैंस गर्मी में आने वाली है। अत: डोका करने के 3-4 दिन बाद यदि भैंस तार देती है तो समझें कि भैंस गर्मी में है और गाभिन करायें। यदि डोका लम्बे समय तक बना रहता है तो डाक्टर द्वारा जांच करा लें कि कहीं डिंबग्रंथि में कोर्इ सिस्ट तो नहीं बना है और इलाज करायें।
प्र0 भैंस गर्मी के लक्षण दिखाती है, परन्तु जब उसे झोटे के पास ले जाते हैं तो झोटा सूंघ कर चला जाता है तथा ऊपर नहीं चढ़ता है, क्या भैंस गर्मी में नहीं होती?
उ0 नर भैंसा स्वभाव से सुस्त होता है तथा उसमें मैथुन की इच्छा कम होती है। उस दिन झोटे ने पहले किसी और भैंस को गाभिन कर दिया है तो यह इच्छा और कम हो जाती है। उम्र बढ़ने के साथ कुछ झोटे तो भैंस में बिल्कुल भी रूचि नहीं दिखाते। सबसे अच्छा है कि आप भैंस को कृत्रिम गर्भाधान केंद्र पर ले जाकर डाक्टर द्वारा जांच करवा कर भैंस को उच्च गुणवता वाले वीर्य से गाभिन करायें।
उ0 भैंस आमतौर पर 24 घंटे गर्मी में रहती है। इस दौरान उसे कभी भी गाभिन कराया जा सकता है। लेकिन वैज्ञानिक सलाह यह दी जाती है कि उसे गर्मी के अंतिम 12 घंटो में कभी भी गाभिन करा लें, अर्थात गर्मी में आने के 10-12 घंटे बाद। कुछ किसान भार्इयों की यह सोच है कि भैंस को तब गाभिन करायेंगे जब वह ठंडी हो जायेगी । गर्मी समाप्त होने पर भैंस को वह अगले दिन लाते हैं। यह सोच बिल्कुल गलत है। इस स्थिति में भैंस के गाभिन होने की संभावना बहुत कम रह जाती है। अत: भैंस को समय पर गाभिन करायें। आमतौर पर 12 घंटे के अंतराल पर दो बार गाभिन करवाना लाभप्रद रहता है।
उ0 भैंस को गाभिन कराने के बाद अधिक दूर तक पैदल न चलायें। उसे मारें-पीटें और भगायें नहीं। गाभिन कराने के बाद उसे ठंडा पानी पिलायें, खूब नहलायें और कम से कम दो हफ्ते तक ठंडी जगह बांधे । भैंस को हरा चारा खिलायें तथा दाने में 40-50 ग्राम खनिज लवण जरूर मिलायें। गर्भाधान के 20-22वें दिन भैंस पर कड़ी नजर रखें कि दोबारा गर्मी में तो नहीं है। गर्भाधान के 2 महीने बाद गाभिन होने की जांच जरूर करायें।
प्र0 भैंस को तीन-चार बार झोटे से मिलवाया है परन्तु हर 20-22 दिन बाद फिर गर्मी के लक्षण दिखाती है। कोर्इ उपाय बताएं?
उ0 कर्इ बार झोटे से मिलन के बावजूद भी यदि भैंस नहीं ठहरती है तो इसके कर्इ कारण हो सकते हैं, इसका इलाज भी कारण का पता चलने पर ही सम्भव है।
Ø संभव है कि झोटा ही नपुंसक अथवा कम जनन क्षमता वाला हो। इसका पता इस बात से चल सकता है कि उस झोटे से गर्भित होने वाली बाकी भैंसे गाभिन ठहरती हैं या नहीं। इसकी जाँच कर लें। अधिकतर भैसें सर्दियों के मौसम में गर्मी में आती है, इससे झोटों पर अधिक दबाव रहता है। यदि झोटे में खोट है तो झोटा बदल कर देख लें अथवा कृत्रिम गर्भाधान ही कराऐं।
Ø यदि कृत्रिम गर्भाधान कराने पर भैंस फिरती है तो हो सकता है कि गर्भाधान सही समय पर नहीं किया गया है, गर्भाधान विधि उचित नहीं है या फिर हिमीकृत वीर्य की गुणवत्ता ठीक नहीं है। उसकी जांच करवाएं।
Ø कुछ भैंसों में हारमोनों के असंतुलन से अण्डा सही समय पर नहीं छुटता है। इससे निषेचन पश्चात यदि भ्रूण बनता भी है तो उसके जिंदा रहने की संभावना बहुत कम रहती है। गर्भाधान के बाद यदि भ्रूण 15 दिन के अंदर ही मर जाता है तो भैंस 20-22 दिन बाद ठीक समय पर गर्मी में आती है। परन्तु यदि भ्रूण की मृत्यु गर्भधारण के 16 दिन पश्चात् होती है तो भैंस पूरे चक्र(20-22दिन) से अधिक समय बाद गर्मी के लक्षण दिखाती है।
Ø बच्चेदानी में संक्रमण होने से भी भैंस नहीं ठहरती है। इसका पता गर्मी के समय दिखार्इ देने वाले तार से चल सकता है। आमतौर पर यह तार शीशे/पानी की तरह साफ होना चाहिए। यदि इसमें सफेदी या कोर्इ छिछड़े हैं तो इसका तात्पर्य है कि बच्चेदानी में संक्रमण है। इस अवस्था में पहले र्इलाज करा कर ही भैंस को गाभिन कराने का प्रयास सफल रह सकता है।
Ø कुछ भैंसो में डिंबग्रंथि पर बनने वाला पीतपिंड पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाता। जिससे वह पर्याप्त मात्राा में प्रोजेस्ट्रोन हारमोन पैदा नहीं कर पाता है । विकासशील भू्रण को उपयुक्त वातावरण नहीं मिलने से उसकी मृत्यु हो जाती है। रोग निदान करने के बाद पशु चिकित्सक भैंस को गाभिन करवाने के 3-4 या 10-12 दिन बाद उपयुक्त हारमोन के टीके लगाते हैं। इससे पीतपिंड द्वारा प्रोजेस्ट्रोन उत्पादन बढ़ जाता है।
उ0 संसार में सबसे अच्छी नस्लें मुख्य रूप से केवल भारत और पाकिस्तान में ही पायी जाती हैं। भारतीय नस्लों में मुर्रा, नीली-रावी, मेहसाना, सूरती, जाफराबादी, नागपुरी, पंढारपुरी तथा भदावरी प्रमुख हैं। हरियाणा राज्य की मुर्रा भैंस को दूध और सुंदरता के आधार पर सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। भैंस को गाभिन कराने के लिए क्रमानुसार निम्न बातों को प्राथमिकता देनी चाहिए-
पहली : यदि आपकी भैंस किसी भी शुद्ध नस्ल की है तो सबसे अच्छा होगा कि आप उसी नस्ल के झोटे से भैंस को गाभिन करायें।
दूसरी : यदि आपकी भैंस देशी या मिश्रित नस्ल की है तो उस क्षेत्रा में पायी जाने वाली नस्ल के झोटे से भैंस को गाभिन करायें।
तीसरी : यदि उस क्षेत्रा की कोर्इ विशेष दुधारू नस्ल नहीं है और आप दुधारू नस्ल पैदा करना चाहते हैं तो उस भैंस को मुर्रा नस्ल के झोटे / वीर्य से गाभिन करायें।
उ0 मुर्रा नस्ल की भैंस के सींग छोटे परन्तु गोलार्इ में अन्दर की ओर कसकर मुड़े होते हैं। भैंस की त्वचा पतली व पूरा शरीर एकदम काला और पूंछ भी काले रंग की होती है। भैंस का सिर हल्का तथा गरदन पतली होती है। इनका पिछला हिस्सा चौड़ा तथा अगला हिस्सा संकरा होता है। इनका अयन काफी विकसित होता है तथा दूध उत्पादन क्षमता 2000-3500 कि0ग्रा0 प्रति ब्यांत होती है। सींगों का खुला होना, शरीर के बालों पर तांबे जैसी झलक दिखार्इ देना या सफेद बाल होना तथा पूंछ सफेद होने को नस्ल के मुख्य लक्षणों से विचलन मानते हैं। वैसे इस प्रकार की भैंसे भी मुर्रा ही हैं, परन्तु प्रदर्शनी/प्रतियोगिता/प्रजनन के लिए चयन आदि में नस्ल के मुख्य शारीरिक लक्षणों को प्राथमिकता दी जाती है। आमतौर पर दूध की प्रतियोगिताओं में नस्ल विशेष के शारीरिक लक्षणों में कुछ विचलन होने पर समझौता करना पड़ता है। परन्तु इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाता है कि वह लक्षण किसी अन्य नस्ल का मुख्य लक्षण तो नहीं है तथा उस लक्षण की प्रतिशतता अधिक नहीं है। शारीरिक लक्षणों में मान्य विचलन के लिए अभी तक निश्चित मानदंड तय नहीं है। यह सब प्रतियोगिता/चयन के उद्देश्य तथा जज/चयनकर्ता के विवेक पर निर्भर करता है।
प्र0 हमारे पास 10-12 भैंसें हैं। हम यह चाहते हैं कि सभी भैंसे एक ही दिन गर्मी में आकर गाभिन हो जायें। क्या कोर्इ उपाय है?
उ0 हाँ, बिल्कुल है। आप पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। पशु चिकित्सक भैंस की जांच करके प्रोस्टाग्लैंडिन या उपयुक्त हारमोन के इंजेक्शन लगा देते हैं, जिसके बाद सभी भैंसे एक ही दिन गर्मी में आ जाती हैं। इसका एक लाभ यह भी है कि भैंस में गर्मी के लक्षण देखने की आवश्यकता नहीं रहती व टीके के निर्धारित समय पश्चात गर्भाधान किया जा सकता है। यह भी ध्यान रखें कि हारमोन का टीका हर पशु में हर समय काम नहीं करता। साथ ही गाभिन पशु में अत्यन्त सावधानी रखें क्योंकि कुछ टीके गर्भपात भी करवा सकते हैं।
प्र0 भैंस को कर्इ बार गाभिन कराया है, परन्तु अभी तक रूकी नहीं है। क्या भ्रूण प्रत्यारोपण द्वारा उसके अंदर भ्रुण रखकर गाभिन किया जा सकता है?
उ0 इसका उत्तर मोटे तौर पर नहीं है। इसका कारण यह है कि भ्रूण प्रत्यारोपण तकनीक बहुत ही मंहगी है। अत: भ्रूण केवल उन्हीं मादा भैंसों में डालते है जो जनन की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं तथा केवल एक बार वीर्य डलवाने पर गाभिन हो जाती हैं। गर्मी में न आने वाली, बार-बार फिरने वाली, जनन समस्याओं से ग्रसित भैंसें, भ्रूण प्रत्यारोपण के लिए उचित नहीं होती। हाँ ऐसे पशु में कृत्रिम विधि से हारमोन के टीके लगवाकर दूध उत्पादन शुरू करवाया जा सकता है।
प्र0 भैंस के गर्मी में आने पर उसे वीर्य का टीका लगवा लिया। फिर डा0 साहब ने कहा कि इसे झोटे से भी करा लेना, अच्छी गर्मी में है। उसे हमने झोटे से भी करा लिया। अब होने वाला बच्चा किसका होगा?
उ0 वीर्य का टीका लगवाने के बाद यदि किसी डाक्टर ने ऐसा कहा है कि इसे झोटे से भी करा लेना तो यह बहुत ही अवैज्ञानिक तरीका है। इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है। किसान अपनी भैंस का कृत्रिम गर्भाधान इसलिए कराता है ताकि उसकी होने वाली नस्ल सुधार सके। यदि उसे झोटे से ही कराना होता तो वह गर्भाधान केन्द्र पर क्यों आता। ऐसी स्थिति में यह बताना तो निश्चित रूप से कठिन है कि बच्चा कृत्रिमगर्भाधान वाला होगा या प्राकृतिक गर्भाधान वाला। परन्तु यहां उन परिस्थितियों का जिक्र करना उचित होगा जब कृत्रिम गर्भाधानकर्ता ऐसी सलाह देता है -
Ø खराब गुणवत्ता वाला वीर्य - ऐसी स्थिति में कृत्रिम गर्भाधानकर्त्ता को ऐसे वीर्य से गर्भाधान करने की अपेक्षा साफ मना कर देना चाहिये कि वीर्य की गुणवत्ता सही नहीं है और आप कहीं दूसरी जगह गर्भाधान करा लें।
Ø नौसिखिया कृत्रिम गर्भाधानकर्त्ता : यदि गर्भाधानकर्त्ता नौसिखिया है तो अक्सर ऐसा कह देता है ताकि उसके द्वारा गर्भाधान दर अधिक हो जाये।
Ø गर्भाशय ग्रीवा की विकृति : कभी-कभी ऐसा भी होता है कि भैंस तो पूरी तरह गर्मी में होती है, परन्तु गर्भाशय ग्रीवा की विकृति के कारण कृत्रिम गर्भाधान नलिका गर्भाशय ग्रीवा में नहीं जा पाती। इस स्थिति में गर्भाधानकर्त्ता के पास कोर्इ विकल्प नहीं बचता और वीर्य को योनि में ही छोड़ना पड़ता है। जहां गाभिन रहने की संभावना बहुत ही कम होती है। भैंस इसी चक्र में गाभिन हो जाये और किसान को फिर से अगले मद चक्र का इंतजार न करना पड़े तो कृत्रिम गर्भाधानकर्त्ता उसे झोटे से गाभिन कराने की सलाह दे देता है।
कृत्रिम गर्भाधान कर्त्ता का कार्य संतोषजनक होने की संभावना यदि कम है तो बेहतर होगा कि आप अपनी भैंस को केवल झोटे से ही मिलवाएं। अन्यथा पशु से बेकार छेड़छाड़ की जाएगी और अनुचित विधि द्वारा बच्चेदानी में व्यर्थ ही गर्भाधान नलिका डालने से संक्रमण की भी संभावना हो सकती है।
उ0 यह पूरी तरह से नर झोटे के ऊपर निर्भर करता है। झोटे के वीर्य में दो प्रकार के शुक्राणु होते हैं, इन्हें X - मादा तथा Y- नर शुक्राणु कहते हैं। ये दोनों शुक्राणु लगभग बराबर संख्या में होते हैं। मादा से निकलने वाला अण्डा केवल Y -प्रकार का होता है। निषेचन के समय यदि X -शुक्राणु मादा के X -अण्डे से मिलता है तो मादा भ्रूण बनता है, जबकि Y -शुक्राणु के मादा X -अण्डा से मिलने पर नर भ्रूण बनता है। X तथा Y शुक्राणु दोनों के पास मादा के X -अण्डा से मिलन के समान अवसर होते हैं। अत: प्रकृति में नर तथा मादा का अनुपात लगभग बराबर रहता है। अभी तक वैज्ञानिक इसके पूर्व नियोजन का उपाय नहीं ढूढ़ पाये हैं जो कि हमेशा सफल रहे। हालाँकि इस दिशा में सभी प्रयासरत हैं।
उ0 हाँ, बिल्कुल। भैंसों में गर्भस्थ बच्चे का लिंग, अल्ट्रासांउड विधि द्वारा जान सकते हैं। गाभिन कराने के 55 दिन बाद यह तकनीक प्रयोग में लार्इ जा सकती है तथा लगभग तीन महीने तक के भ्रूण का लिंग आसानी से पता कर सकते हैं।
उ0 आमतौर पर भैंस में जुड़वाँ बच्चे बहुत कम होते हैं। लेकिन जुड़वाँ में यदि एक कटड़ा और दूसरी कटड़ी है तो यह मानकर चलें कि कटड़ी बांझ रहेगी। आगे चलकर उसे निकाल दें। यदि जुडवां में दोनों कटड़े हैं अथवा कटड़ी है, तो चिंता करने की कोर्इ बात नहीं । इन दोनों स्थितियों में बच्चों का प्रजनन सामान्य रहेगा।
उ0 यह प्रश्न आमतौर पर काफी सुनने को मिलता है। परन्तु अधिकतर दशा में ऐसा देखा गया है कि किसान भार्इ भैंस के गाभिन कराने की तारीख कहीं भी नहीं लिखते और अक्सर भूल जाते हैं। भैंस लगभग 310-315 दिन बाद बच्चा देती है, तथा इसमें 5-7 दिन उपर-नीचे हो सकते हैं। इसके बाद भी भैंस बच्चा नहीं देती है और गर्भाधान तिथि आपको निश्चित याद है तो पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। इस स्थिति से निबटने के लिए दवार्इयां उपलब्ध हैं।
कभी - कभी ऐसा भी होता है कि भैंस को हल्के दर्द आते हैं परन्तु ब्याने के अन्य लक्षण जैसे थनों में दूध उतरना व पुठ्ठों का नीचे बैठना स्पष्ट होते हैं। किसान भ्रम की स्थिति में रहता है कि भैंस एक-दो दिन में बच्चा दे देगी। एक-दो दिन बाद भैंस में ये लक्षण समाप्त हो जाते हैं। ल्योटी सूख जाती है, पुठठे सामान्य हो जाते हैं तथा भैंस सामान्य या बेचैन हो सकती है। इस स्थिति में तुरंत पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। क्योंकि हो सकता है कि बच्चा मर गया हो, बच्चा विकृत हो या बच्चेदानी में बल पड़ गया हो।
भैंस में यदि दर्द शुरू हो गये हैं तथा लगभग 4-6 घंटे की कोशिश के बाद भी बच्चा बाहर नहीं आ रहा है तो पशु चिकित्सक को तुरंत बुला लेना चाहिए।
उ0 भैंस का पहले ब्यांत में दूध सुखाते वक्त यदि सही सावधानियां नहीं बरती गर्इ हैं तो अक्सर ऐसा हो जाता है। दूध, जीवाणु की वृद्धि के लिए बहुत अच्छा माध्यम है। अत: यदि ल्योटी में कुछ दूध रह गया है तो उसमें जीवाणु वृद्धि करने लगते हैं और थनैला रोग हो जाता है। इस स्थिति में जिस थन में भी सूजन है उसका पूरा दूध तुरंत खाली कर दें और पशु चिकित्सक से मिलकर उस थन में दवार्इ चढ़़वा लें। यह क्रिया/इलाज 3-5 दिन तक जारी रखें।
उ0 आमतौर पर ब्याने से पहले कुछ पशुओं में नाभि के आस-पास पानी उतर आता है। यदि यह ज्यादा नहीं है तथा भैंस को उठने बैठने में तकलीफ नहीं है तो ऐसे ही रहने दें। ब्याने के बाद यह स्थिति अपने आप ठीक हो जाती है। यदि यह बहुत ज्यादा है तो पशु चिकित्सक की सलाह लें।
उ0 बच्चे को दूध पिलाने के लिए जेर गिरने का इंतजार नहीं करना चाहिए। भैंस के अयन और पिछले हिस्से की सफार्इ करके, ब्याने के 1-2 घंटे के अंदर ही बच्चे को दूध पिला देना चाहिए। खीस में ऐसे तत्व होते हैं जो बच्चे को बीमारियों से लड़ने की शक्ति प्रदान करते हैं तथा उनका असर 1-2 घंटे के अंदर ही सबसे अधिक होता है। बच्चे को दूध पिलाने से भैंस में भी ऐसे हारमोन निकलते हैं जिससे जेर जल्दी बाहर आ जाती है।
उ0 आमतौर पर ब्याने के 2-6 घंटे के अंदर जेर बाहर आ जाती है। परन्तु यदि यह जेर 12 घंटे तक भी पूरी तरह बाहर नहीं आती तो है इसे जेर रूकना कहते हैं। जेर रूकने पर, ब्याने के 24 घंटे बाद ही जेर निकलवानी चाहिए। इससे जेर की बच्चेदानी से चिपकन कम हो जाती है तथा जेर आसानी से निकल आती है। यदि कुछ जेर अंदर भी रह जाती है, तो चिंता की बात नहीं है। बेहतर हो कि जेर को बच्चेदानी के अंदर हाथ डालकर न निकाला जाए। जेर को योनि के बाहर से पकड़ कर धीरे -धीरे खींचना चाहिए। यदि यह टूट जाए तो योनि के अन्दर कुछ दूरी तक हाथ डाल सकते हैं। परन्तु इस बात का ध्यान रहे कि हाथों में साफ दस्ताने पहने हों। अन्यथा टीके द्वारा भी शेष भाग निकाला जा सकता है। भैंस का इलाज 3-5 दिन अवश्य करायें। जेर अपने आप टूट -टूट कर बाहर निकल जायेगी।
उ0 आमतौर पर भैंस समय से पहले बच्चा दो कारणों से फैंकती है -
Ø प्रोजेस्ट्रोन हारमोन का पर्याप्त मात्रा में होना व
Ø जनन सम्बन्धी संक्रामक बीमारियां होना ।
पहली अवस्था में भैंस, बार-बार बच्चा फैंकती है तथा उसमें संक्रमण का कोर्इ लक्षण नहीं होता है। इस स्थिति में रोग निदान के बाद डाक्टर द्वारा अगले ब्यांत में प्रोजेस्ट्रोन हारमोन के नियमित तौर से टीके लगवाऐ जाते हैं। दूसरी अवस्था में गर्भपात के बाद, बच्चे व जेर का अथवा मवाद का परीक्षण करके चिकित्सक इसके कारण का पता लगाते हैं, व उपयुक्त उपचार करते हैं। दोनों ही अवस्था में जेर नहीं गिरती क्योंकि इसका बच्चेदानी के साथ मजबूत बंधन बना रहता है। इसे खींच कर निकालने की कोशिश नहीं करें। आमतौर पर बच्चेदानी में 5-6 दिन तक जीवाणुनाशक दवा रखने से जेर अपने आप टूट -टूट कर बाहर आ जाती है। टूटी जेर निकालने के लिए टीके भी लगाए जा सकते है, जो बच्चेदानी का संकुचन कर जेर को बाहर फेंकने में सहायता करते हैं।
उ0 जेर एक तरह से माँस है, लेकिन भैंस एक शाकाहारी पशु है। इसलिए अगर भैंस जेर खा लेती है तो उसके पाचन तंत्रा में गडबड़ होना स्वाभाविक है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि भैंस ने जेर का कितना बड़ा हिस्सा खाया है। यदि छोटा टुकड़ा खाया है तो कोर्इ तकलीफ नहीं। यदि वह ज्यादा या पूरा जेर खा गर्इ है तो अपचन, दस्त या कब्ज व भूख कम लगना और साथ-साथ दूध उत्पादन कम होना देखा गया है। भैंस सुस्त रहती है, बच्चे में भी कम ध्यान लगाती है। ऐसे में तुरन्त पशु चिकित्सक से इलाज करवायें। भैंस की पाचन क्रिया को सामान्य करने के लिये हिमालयन बत्तीसा आयुर्वेदिक पाऊडर, खाने का सोडा व पाचन में सहायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने के लिए बाजार में उपलब्ध दवाएं दें। यदि जरूरत पड़े तो डाक्टरी सलाह से कब्ज निवारण की दवा दें। वैसे भैंस आमतौर पर 2-3 दिन में ठीक हो जाती है। कुछ भैंसो में यह जेर का टुकड़ा पेट के एक हिस्से में अटक जाता है। जिससे उसमें अफारा हो जाता है। ऐसी स्थिति में शल्य चिकित्सा द्वारा पेट से जेर का अटका हुआ हिस्सा निकालने की नौबत भी आ सकती है।
उ0 भैंस ने यदि मैला नहीं गिराया है तो आमतौर पर बच्चेदानी में मवाद पड़ सकती है। उसकी पूँछ और योनि पर लाल या सफेद रंग का मवाद चिपका रहता है तथा मक्खियां भिनकती रहती हैं। इसका डाक्टर से इलाज करायें। यदि पूँछ और योनि पर मवाद नहीं चिपका है तथा मक्खियाँ नहीं भिनक रही तो समझें की भैंस बिल्कुल ठीक है। कोर्इ इलाज की जरूरत नहीं है। कुछ भैंसो में मैला शरीर द्वारा सोख लिया जाता है जो हानिकर नहीं होता है। इलाज तभी करायें जब मवाद दिखार्इ दे।
प्र0 क्या भैंस में दूध निकालने के टीके लगाने का जनन पर कोर्इ कुप्रभाव है? क्या इस प्रकार निकाला गया दूध मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है?
उ0 सामान्य तौर पर जब कटड़ा/कटड़ी भैंस के थनों को चूसती है या दूध निकालने के लिए थन साफ करके मसले जाते है तो दिमाग के निचले हिस्से में स्थित पिट्यूटरी ग्रंथि में से आक्सीटोसिन हारमोन निकलकर खून में घुल जाता है । यहां से यह हारमोन ल्योटी में पंहुच कर दूध की नलकियों का संकुचन करता है जिससे भैंस पावस जाती है। इस दौरान दूध को शीघ्रता से निकालते हैं, क्योंकि यह पावसन कुछ ही मिनटों को होता है। आक्सीटोसिन हारमोन शरीर में केवल कुछ मिनट तक ही टिक पाता है खून में इसका विघटन बहुत जल्दी होने से यह निष्क्रिय हो जाता है। ऐसी भैंस जिस का बच्चा मर जाता है, किसान भार्इ आक्सीटोसिन का टीका लगा कर भैंस का दूध निकाल लेते हैं। अब यह टीका बाजार में इस उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं है।
जहाँ तक इसके जनन पर प्रभाव का सवाल है, यदि भैंस गर्मी में है, उसे गाभिन करवाया गया है, वह कुछ दिन/महीनों की गाभिन है, इस टीके का भैंस जनन पर कोर्इ अहम प्रभाव नहीं है क्योंकि, दूध निकालने के लिए हारमोन की जो मात्रा प्रयुक्त की जाती है वह बहुत कम होती है। यदि यह हारमोन अधिक मात्रा में एक साथ लगाया जाए तो उसका कुप्रभाव जैसे भैंस का गाभिन न ठहरना व गर्भपात की आशंका होना आदि हो सकते हैं।
क्योंकि आक्सीटोसिन हारमोन की मात्रा बहुत कम होती है तो यह दूध में भी मिश्रित नहीं होता है। यदि इसकी कोर्इ लघु मात्रा दूध में हो तो वह मानव की पाचन नली में पचने के कारण, संभवत: शरीर में कोर्इ नुकसान नहीं पहुँचाती। लेकिन भैंस को बार-बार टीका लगाना एक क्रूर प्रक्रिया है। अत: भैंस में दूध लेने के लिए टीका लगाने की प्रवृत्ति को रोकना चाहिए।
प्र0 कुछ दिन पहले हमने एक भैंस खरीदी थी। उसकी त्वचा का रंग बिल्कुल काला था। लेकिन उसका रंग अब तांबे की तरह लाल सा हो गया है। कुछ उपाय बताऐं।
उ0 कुछ व्यापारी/भैंस पालक पशु मेलों में भैंस के उपर कालिख पोत कर ले आते हैं। इसका पता लगाने के लिए भैंस के किसी हिस्से को अच्छी तरह धो लें अथवा गीले कपड़े से पोंछ लें। यदि कालिख की गर्इ है तो पता लग जायेगा।
दूसरे, भैंस को खरीद कर लाने के बाद उसे लगातार बंद कमरे के अंदर रख रहे हैं तो सूर्य के प्रकाश के अभाव में त्वचा का रंग लाल पड़ जाता है। सूर्य की किरणों में त्वचा के रंग का कालापन बनाऐ रखने की क्षमता होती है। अत: भैंस को सूर्य के प्रकाश में खुली छायादार जगह पर बांधे। कुछ ही दिनों में त्वचा का रंग काला हो जायेगा।
शीघ्र इलाज के लिए पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। पशु चिकित्सक इस स्थिति में भैंस को त्वचा के टोनिक जैसे ऐसीटीलारसन व विटामिन ए, डी तथा र्इ के इंजेक्शन का टीका लगा देते हैं। टीका लगने से त्वचा में चमक आ जाती है तथा रंग भी काला हो जाता है।
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