Saturday, December 7, 2013

प्रसव अवस्था

बच्चे के जन्म देने की प्रक्रिया को प्रसव कहते हैं। प्रसव के आसपास का समय मां और बच्चा दोनों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। थोड़ी सी असावधानी भैंस और उसके बच्चे के लिए घातक हो सकती है, तथा भैंस का दूध उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित हो सकता है।
                   
                     प्रसव के समय जच्चा और बच्चा की देखभाल जरूरी

बाह्य परीक्षण द्वारा गर्भधारण का अनुमान:

कृत्रिम गर्भाधान के बाद यदि भैंस गाभिन हो जाती है तो निम्नलिखित लक्षण देखने को मिलते हैं जिससे हम एक बस अनुमान लगा सकते हैं। ये लक्षण निम्नलिखित हैं:-

Ø   गर्भधारण करने के बाद भैंसें साधारणतया गर्मी में नहीं आती है।

Ø   गर्भधारण करने के बाद भैंसें अधिक शांत हो जाती है।

Ø   गर्भधारण के शुरू के महीनों में भैंसों में चर्बी बढ़ने की प्रवृति (Fattening tendency)   देखने को मिलती है।

Ø   दूध उत्पादन में कमी जाती है।

Ø   शरीर का भार धीरे धीरे बढ़ने लगता है।

Ø   पेट का आकार भी धीरे धीरे बढ़ने लगता है।

Ø   कटड़ियों में लगभग 5-6 महीनों के बाद से ही थन का आकार बढ़ने लगता है जबकि मादा भैंसों में ये लक्षण प्रसव के 2-3 सप्ताह मात्र पहले देखने को मिलते हैं।

Ø   कुछ भैंसों में थन का आगे वाले भाग में सूजन गर्भ के अंतिम महीनों के दौरान देखने को मिलती है।

भैंसो में गर्भ जांच:
भैंसो में गर्भ की जांच का मुख्य उद्देश्य यह है कि कृत्रिम गर्भाधान या प्राकृतिक संभोग के बाद कम से कम समय में यह आश्वस्त होना है कि हमारी भैंसे गर्भधारण  किया है  अथवा नहीं। यदि गर्भधारण  हुआ है तो यह कितने दिन का है तथा भ्रूण की क्या स्थिति है। यदि गर्भधारण  नहीं हुआ है तो इसके कारणों की जानकारियां भी जल्द से जल्द पता लगाने में सहायता मिलती है, जो किसानों को आर्थिक क्षति से बचाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि औरतों में मूत्र की जाँच से गर्भधारण  का पता चल जाता है। दुर्भाग्यवश, भैसों में इस तरह की कोर्इ शर्तिया जाँच नहीं है। साधारणतया  भैंसों में गर्भधारण के 7-8 महीनों के बाद बाहर से देखकर किसान बता देते हैं कि भैंस गाभिन है कि नहीं। लेकिन हमारा उद्देश्य है कि गर्भधारण का पता शुरू के 40-60 दिन में लग जाए तो ये किसानों के हित में होगा। भैंसों में गर्भधारण की जाँच बहुत सी विधियों से की जाती है जिनमें प्रमुख है :

·        बाह्य परीक्षण (External examination)

·        गुदा मार्ग द्वारा परीक्षण (Per-rectal examination),

·        खून तथा दूध में प्रोजेस्टेरोन का स्तर,
·        अल्ट्रासाउंड विधि इत्यादि।



प्रसूतिकाल के रोग:


प्रसूतिकाल प्रसव के बाद का वह समय है जिसमें मादा जननांग विशेष रूप से बच्चेदानी, शारीरिक व क्रियात्मक रूप से अपनी अगर्भित अवस्था में वापस आ जाती है। इसमें लगभग 45 दिन का समय लगता है। प्रसूतिकाल में होने वाले रोग इस प्रकार है।



जनननलिका, योनि अथवा भगोष्ठों की चोट :
यदि भैंस का बच्चा फंस गया है अथवा बच्चे का आकार बड़ा है तो बच्चे को बाहर खींचने के दौरान जनननलिका क्षतिग्रस्त हो सकती है। इसकी संभावना उस समय और भी बढ़ जाती है जब किसी नीम-हकीम से बच्चा खिंचवाया गया हो। यदि चोट अधिक है तो वहां पर टांके लगाने की जरूरत पड़ती है। किसी पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। यदि खरोंच हल्की है तो उसे नीम या फिटकरी के पानी से साफ करके, उस पर तेल-हल्दी मिलाकर रोजाना दो-तीन बार लगायें। इसके अतिरिक्त उस पर कोर्इ भी एण्टीसेप्टिक क्रीम लगार्इ जा सकती है। सफार्इ का विशेष ध्यान रखें ताकि उस पर मक्खियां न बैंठे।
                                                                                              
जेर रूकना / फंसना
गर्भाशय में बच्चा पानी की थैली के अंदर सुरक्षित रहकर बढ़ता है। ब्याने के समय ये थैली फट जाती है तथा बच्चा बाहर आ जाता है। ब्याने के लगभग 2-8 घंटे बाद खाली हुर्इ ये थैली (जेर) भी बाहर आ जाती हैं। इससे गर्भाशय पूरी तरह खाली हो जाता है। परन्तु कभी-कभी ये जेर ब्याने के बारह घंटे बाद तक नहीं निकलती। तब इसे जेर रूकना या फंसना कहते हैं। जेर रूकने के मुख्य कारण इस प्रकार हैं:

Ø  भैंस का समय से पहले बच्चा देना,

Ø  गर्भपात होना,

Ø  भैंस में कैल्शियम की कमी,

Ø  भैंस को संतुलित पोषण न मिलने के कारण कमजोर होना अथवा बच्चे का आकार काफी बड़ा होना।

जेर रूकने पर निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

Ø  जेर रूकने पर भैंस को साफ जगह पर बांधना चाहिए।

Ø    भैंस के बैठने पर जेर का कुछ हिस्सा बाहर आ जाता है, जिस पर भूसा, कचरा, मिट्टी व अन्य गंदगी चिपक जाती है। भैंस के खड़ी होने पर जेर से चिपकी गंदगी जेर के साथ खिंच कर अन्दर चली जाती है, जिससे गर्भाशय में संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है।

Ø    जेर रूकने पर पशु चिकित्सक की सलाह आवश्यक हो जाती है।

Ø    जेर हमेशा ब्याने के 24 घंटे बाद ही डाक्टर द्वारा निकलवानी चाहिए। ऐसा इसलिए है, कि गर्भाशय द्वारा जेर की पकड़ ढीली पड़ जाती है और जेर निकालते समय गर्भाशय को कोर्इ हानि नहीं पहुंचती।

Ø    जेर निकालने से पहले, भैंस का पिछला हिस्सा व जेर का लटकता हुआ हिस्सा साबुन व साफ पानी से अच्छी तरह धो लें।

Ø    जेर निकलवाने में आधा घंटे से अधिक का समय नहीं लगना चाहिए।

Ø  जेर निकालते समय हाथ साफ होने चाहिए तथा नाखून कटे होने चाहिए।

Ø    कभी-कभी डाक्टर पूरी तरह से जेर को नहीं निकाल पाते हैं क्योंकि जेर अन्दर से काफी चिपकी रहती है। इस बारे में भैंस पालक डाक्टर पर अधिक जोर न डालें। ऐसी स्थिति में जेर अपने आप थोड़ी-थोड़ी  कटकर बाहर आती रहती है।

Ø    जेर निकालने के बाद डाक्टर से बच्चेदानी में उचित गोलियां रखवा लें। ये गोलियां तथा अन्य इंजेक्शन कम से कम 3-5दिन तक अवश्य लगवाने चाहिए। ऐसा न करने  पर बच्चेदानी में अक्सर मवाद पड़ जाती है, दूध उत्पादन घट जाता है और फिर से इलाज की जरूरत पड़ती है।

Ø    जेर रूकने पर उस पर इर्ट-पत्थर आदि नहीं बांधना चाहिए। इससे बच्चेदानी के पलटने का खतरा रहता है।
                                                                                                                                                                                          
गर्भाशय में मवाद पड़ना (गर्भाशय शोथ/मेट्राइटिस): 
ब्याने के बाद कुछ भैसों के गर्भाशय में मवाद पड़ जाती है। इसकी संभावना ब्याने से लेकर लगभग दो महीने तक अधिक होती है। मवाद की मात्रा कुछ मि0ली0 से लेकर कर्इ लीटर तक हो सकती है।

Ø  मवाद पड़ने पर भैंस की पूँछ के आसपास चिपचिपा मवाद दिखार्इ देता है तथा मक्खियां भिनकती रहती हैं।

Ø  भैंस के बैठने पर मवाद अक्सर बाहर निकलता रहता है, जो फटे हुए दूध की तरह या लालिमा लिए हुए गाढे़ सफेद  रंग का होता है।

Ø  कुछ पशु जलन होने के कारण पीछे की ओर जोर लगा़ते रहते हैं। रोग की तीव्र अवस्था में पशु को बुखार हो सकता है, भूख कम हो जाती है तथा दूध सूख जाता है।

Ø  इस रोग के उपचार के लिए डाक्टर से सम्पर्क कर बच्चेदानी में दवार्इ रखवाकर इंजैक्शन लगवाने चाहिए तथा र्इलाज कम से कम 3-5 दिन अवश्य करवाना चाहिए। इलाज न करवाने पर पशु बांझ हो सकता है।

Ø  गर्मी में आने पर ऐसी भैंस की पहले डाक्टरी जांच करानी चाहिये। उसके बाद ही उसका गर्भाधान प्राकृतिक अथवा कृत्रिम विधि द्वारा कराना चाहिये। हो सकता है 1-2 गर्मी के अवसर छोड़ने पड़ें।    
                                                                                                                                                                                           

दुग्ध ज्वर (मिल्क फीवर): 
यह मुख्य रूप से उन भैसों का रोग है, जो ज्यादा दूध देती हैं तथा जिन भैंसो को कैल्शियम की पूरी मात्रा नहीं मिल पाती है। यह रोग मुख्य रूप से ब्याने के लगभग 72 घंटे के अंदर होता है।

Ø  भैंस का शरीर ठंडा पड़ जाता है, तथा कमजोरी महसूस करने के कारण वह खड़ी नहीं रह पाती और बैठ जाती है।

Ø  वह अपनी गर्दन को कोख के उपर रख लेती है।

Ø  भैंस जुगाली करना बंद कर देती है तथा गोबर अक्सर सूखा करती है।

Ø  भैंस को कंपकपी महसूस होती है तथा बेहोशी छायी रहती है।

Ø  इसके उपचार के लिए डाक्टर को बुलाकर कैल्शियम की बोतल खून में लगवानी चाहिए।

Ø  डाक्टर कैल्शियम की कुल मात्रा का आधा भाग खून में तथा आधा भाग चमड़ी के नीचे लगाते हैं।

Ø  कैल्शियम की दवा रामबाण औषधि की तरह काम करती है तथा भैंस तुंरत खड़ी होकर जुगाली करने लगती है।

Ø  किसान भार्इयों को चाहिए कि चमड़ी के नीचे लगे इंजैक्शन के स्थान की सिकार्इ करें।

Ø  रोग की रोकथाम के लिए भैंस को खनिज लवण मिश्रण खिलाएं।

Ø  ब्याने के 2-3 दिन बाद तक सारा दूध एक साथ न निकालें तथा थोड़ा दूध थनों में भी छोड़ते रहें।
                                                        दुग्ध ज्वर में बैठने की मुद्रा



प्रसव के बाद भैंस की देखभाल:

प्रसव के बाद भैंस की देखभाल में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

Ø  पिछले हिस्से व अयन को धोकर, एक-दो घंटे के अंदर बच्चे को खीस पिला देनी चाहिए।

Ø  भैंस को गुड़, बिनौला तथा हरा चारा खाने को देना चाहिए। उसे ताजा या हल्का गुनगुना पानी पिलाना चाहिए। अब उसके जेर गिरा देने का इंतजार करना चाहिए।

Ø  आमतौर पर भैंस ब्याने के बाद 2-8 घंटे में जेर गिरा देती है। जेर गिरा देने के बाद भैंस को अच्छी तरह से नहला दें। यदि योनि के आस-पास खरोंच या फटने के निशान हैं तो तेल आदि लगा दें जिससे उस पर मक्खियाँ न बैठें।

Ø  भैंस पर तीन दिन कड़ी नजर रखें। क्योंकि ब्याने के बाद

·         बच्चेदानी का बाहर आना,

·         परभक्षी द्वारा भैंस को काटना,

·         दुग्ध ज्वर होना आदि समस्याओं की सम्भावना इसी समय अधिक होती है।

नवजात बच्चे की देखभाल:
Ø    जन्म के तुरंत बाद बच्चे की देखभाल आवश्यक है। उसके लिए निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए।

Ø    जन्म के तुरंत बाद बच्चे के ऊपर की जेर/झिल्ली हटा दें तथा नाक व मुंह साफ करें।

Ø    यदि सांस लेने में दिक्कत हो रही है तो छाती मलें तथा बच्चे की पिछली टांगें पकड़ कर उल्टा लटकाएं।

Ø    बच्चे की नाभि को तीन-चार अंगुली नीचे पास-पास दो स्थानों पर सावधानी से मजबूत धागे से बांधे | अब नये ब्लेड या साफ कैंची से दोनों बंधी हुर्इ जगहों के बीच नाभि को काट दें। इसके बाद कटी हुर्इ नाभि पर टिंचर आयोडीन लगा दें।

Ø    बच्चे को भैंस के सामने रखें तथा उसे चाटने दें। बच्चे को चाटने से बच्चे की त्वचा जल्दी सूख जाती है, जिससे बच्चे का तापमान नहीं गिरता, त्वचा साफ हो जाती है, शरीर में खून दौड़ने लगता है तथा माँ और बच्चे का बंधन पनपता है। इससे माँ को कुछ लवण और प्रोटीन भी प्राप्त हो जाती है।

Ø    यदि भैंस बच्चे को नहीं चाटती है तो किसी साफ तौलिए से बच्चे की रगड़ कर सफार्इ कर दें।
                              
                    
नवजात बच्चे को जन्म के 1-2 घंटे के अंदर खीस अवश्य पिलाऐ
Ø    जन्म के1-2 घंटे के अंदर बच्चे को खीस अवश्य पिलाएं। इसके लिए जेर गिरने का इंतजार बिल्कुल न करें। एक -दो घंटे के अंदर पिलाया हुआ खीस बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करता है, जिससे बच्चे को खतरनाक बीमारियों से लड़ने की शक्ति मिलती है।
Ø    बच्चे को उसके वजन का 10 प्रतिशत दूध पिलाना चाहिए। उदाहरण के लिए आमतौर पर नवजात बच्चा 30 कि0ग्रा0 का होता है। वजन के अनुसार उसे 3 कि0ग्रा0 दूध(1.5 कि0ग्रा0 सुबह व 1.5 कि0ग्रा0 शाम) पिलाएं।
Ø     यह ध्यान जरूर रखें कि पहला दूध पीने के बाद बच्चा लगभग दो घंटे के अंदर मल त्याग कर दे।
Ø      बच्चे को अधिक गर्मी व सर्दी से बचाकर साफ जगह पर रखें।
Ø     भैंस के बच्चे को जूण के लिए दवार्इ (कृमिनाशक दवा) 10 दिन की उम्र पर जरूर पिला दें। यह दवा 21 दिन बाद दोबारा पिलानी चाहिये।
   
                                         
  
                    नवजात बच्चे को 10 दिन की उम्र पर कृमिनाशक दवा पिलाऐं

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